आंधियों ने जोर से झकझोर कर देखा मुझे,
ग्रीष्म,वर्षा,शीत मुझको आजमाते ही रहे,
किन्तु फिर भी कर सके ना आज तक विचलित मुझे,
ठोकरें खाई मगर फिर भी संभल चलते रहे।
मंजिलों से हो न हो इन रास्तों से प्यार है,
आदमी बनने की ख्वाहिश, दर्द हर स्वीकार है,
मानता हूँ डगमगाना भाग्य में मेरे सही,
वो भी क्या इंसान थे जो बर्फ से गलते रहे।
इक निसानी छोड़कर जाऊंगा मैं इस राह पर,
इक कहानी छोड़कर जाऊंगा मैं इस राह पर,
‘मील के पत्थर’ बनेंगे मेरे पैरों के निशां,
यूँ कि इस नक़्शे-क़दम कुछ आदमी चलते रहे।
ना कभी ख्वाहिस की मरहम की कभी अपने लिए,
चाह थी जाहिर करूँ ना दर्द सबके सामने,
पर करूँ क्या भाव का अपने हृदय का मैं प्रिये,
हाथ में पकड़ी कलम जब, घाव थे ढलते रहे।
चाह थी सम्पूर्ण धरती को बना लूँ घर मेरा,
आदमी का आदमी से प्यार हो नूतन सदा,
पर यहाँ कुछ लोग ऐसे भी मिले संयोग से,
मैं रहा सहयोग देता और वे छलते रहे।
कंटको को देखकर दहला नहीं ये दिल कभी,
लाख खाई ठोकरें पर राह पकड़ी जो सही,
जब मुझे मंजिल मिली कुछ लोग हैं खिसिया गये,
कुछ हाथ मलते रह गए, कुछ लोग बस जलते रहे।
( खिसियाना=गुस्सा करना)