तुम कहाँ कुछ सोचते हो !
दीन-दुनिया की कही कोई
खबर तुमको नहीं थी
छोड़ करके चल दिए
जो बांह संकट में गही थी
ठोकरें खाकर समय की
आज माथा ठोकते हो !
तुम कहाँ कुछ सोचते हो !
बात अधिकारों की तुमने
खूब सोची खूब जाना
अपने हित की बात करना
शोर करना गुल मचाना
आज इस नाजुक समय
करतब्य से मुख मोडते हो!
तुम कहाँ कुछ सोचते हो !
दूसरों के राह मे तुमने
सदा कांटे बिछाए
दूसरो को त्रास देकर
मधुर पल अपने बनाये
झोपड़ी मेरी जला
महलों का वैभव खोजते हो!
तुम कहाँ कुछ सोचते हो !
Composed By
Kaushal Shukla
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बहुत खूबसूरत रचना लाजवाब शब्द चयन।
अप्रतिम भाव।कहाँ से ढूंढ लाते हो आप इतने सुन्दर शब्दों के मोती ?
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