सौरमंडल का एक महत्वपूर्ण ग्रह पृथ्वी, महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि इस पर जीवन है और जीवन को बनाए रखने के लिए अनुकूल वातावरण। और मनुष्य पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है और इस श्रेष्ठता का मूल है प्रकृति प्रदत्त मानव मस्तिष्क की शक्ति, उसकी कल्पनाशीलता दूरदर्शिता, विचारशीलता, आकलन संवेदना आदि। इन्ही गुणों के बल पर मानव ने अन्य जीवों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध किया है। लेकिन अगर प्रकृति ने मनुष्य को इन विशेष गुणों से परिपूर्ण बनाया है तो इसके पीछे अवश्य ही कोई निश्चित उद्देश्य होगा।
आज मनुष्य अपने मस्तिष्क की विलक्षण छमताओं के कारण विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर है। आज का मानव अपने मस्तिष्क की सभी तंत्रिकाओं को अपने विकास के लिए सक्रिय किए हुए है। आज विवेक का प्रयोग सिर्फ और सिर्फ अपने को और अधिक समृद्ध, सुविधासम्पन्न, शक्तिशाली तथा दीर्घायु बनाने के लिए हो रहा है जो मानव मस्तिष्क की क्षमताओं का अपमान है।
आज ‘पर्यावरण बचाओ’ का नारा बुलंद है क्योंकि मानव यह अच्छी तरह जानता है कि इस परिस्थिति का जिम्मेदार वह खुद है। वहीँ दूसरी तरफ प्राकृतिक नियमों का खुलेआम उलंघन हो रहा है। अपने निजी स्वार्थो की पूर्ति के लिए नदियों का मार्ग अवरुद्ध करके बिजली उत्पादन हो रहा है। वनों को काटकर शहरीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे अनेक क्रियाकलाप तेजी से हो रहे हैं जिससे पर्यावरण तंत्र दुष्प्रभावित है। लेकिन फिर भी ‘पर्यावरण बचाओ’ का राग अलापा जा रहा है।
इस दोहरी मानसिकता का मापदंड क्या है? कहीँ न कहीँ मानव अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहता है। आरोप प्रत्यारोप का बाजार गर्म है। विकसित देश विकासशील देशों पर प्रदूषण का आरोप लगाते है। वहीँ विकासशील देश विकसित देशों के औद्योगीकरण को इसका जिम्मेदार मानते हैं। सबकुछ जानते हुए भी सब अनजान बने हुए हैं। लेकिन इस प्रकार जिम्मेदारियों से मुँह मोड़कर हम खुद को बचा नहीं सकते।
आज विश्व के सामने कई प्रश्न मुँह बाए खड़े हैं और सबसे बड़ा प्रश्न है पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व कितने दिनों तक बरकरार रहेगा? स्थिति भयावह है और ग्लोबल वार्मिंग अपने चरम पर है। आज अणु बम और परमाणु बम के परीक्षण की होड़ लगी है। रासायनिक हथियार बन रहे हैं और इनका प्रयोग भी किया जा रहा है। एक कुनबा दूसरे को नीचा दिखाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। हालाँकि मानव विवेकहीन नहीं है और सभी दुष्परिणामों से अवगत है। फिर भी खतरा न सिर्फ मानव जीवन पर है बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी पर है।
आज दुनियां में जितने रासायनिक और जैविक हथियार उपलब्ध हैं उनके दुष्प्रयोग से एक नहीं बल्कि ऐसे दो ग्रहों का महाविनाश हो सकता है फिर इन वैज्ञानिक अविष्कारों का औचित्य क्या होगा? यह एक कटु प्रश्न के साथ साथ कटु सत्य भी है। स्थिति को देखते हुए कवि की कल्पना जीवंत हो उठती है-
‘सावधान मनुष्य! यदि विज्ञानं है तलवार,
तो इसे दे फेंक तजकर मोह स्मृति पार,
हो चुका है सिद्ध तू है शिशु अभी नादान,
फूल काटों की नहीं कोई तुझे पहचान,
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार,
काट लेगा अंग तीखी है बड़ी यह धार।’
लेकिन सबकुछ जानते हुए भी मानव मानव का दुश्मन बना हुआ है। वह किसी और शक्ति से सहायता की उम्मीद रखता है। यह सोच की ‘पृथ्वी की रक्षा प्रकृति स्वयं करेगी या ईश्वर अवतार लेकर इसे बचाएगा,’ हमें महाविनाश की ओर अग्रसर कर रही है।
सही मायनों में मानव भी प्रकृति का एक हिस्सा है और प्रकृति ने विवेकशील मस्तिष्क देकर मनुष्य को अपनी सुरक्षा का दायित्व भी सौंपा है ताकि मनुष्य सही और गलत का फैसला स्वयं करे और अपने साथ साथ पृथ्वी का अस्तित्व बनाए रखने में अपनी भूमिका निभाए।
मनुष्य होने के नाते हर किसी को पर्यावरण और प्रकृति को सुरक्षित रखने की दिशा में प्रयास आवश्यक भी है और अपरिहार्य भी। यदि मानव अपने विवेक से अपने विनाश का सामान इकठ्ठा कर सकता है तो अपने बचाव का प्रयास भी कर सकता है। अपनी जिम्मेदारियों को प्रकृति पर सौंपकर हम अपने दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकते।
यदि मानव समाज सजग और एकजुट होकर सक्रिय कदम उठाए तो क्या संभव नहीं है। पहल तो करनी ही होगी। विकास होना आवश्यक है लेकिन पृथ्वी के विनाश की शर्त पर नहीं। पृथ्वी है तो जीवन है और जीवन है तो मानव समाज और अन्य जीव। मनुष्य विवेकशील है अतः अपने विवेक का प्रयोग मानव समाज को पृथ्वी के बचाव की दिशा में करना ही पड़ेगा नहीं तो कुछ भी बचना संभव नहीं है और लाखों वर्षों की कठोर तपस्या के बाद सभ्य बना मानव अपनी असभ्यता के कारण थोड़े ही समय में राख के ढेर में तब्दील हो जायेगा।
Written By
Kaushal Shukla