
वह दिखावा करता है हँसने का
दिल में अश्कों का समंदर लिए
वह मिलता है सबसे
गर्मजोशी से छिपे मुखड़े में
कि जैसे हँस रहा हो
हक़ीक़त को छिपाता उसका वजूद
उसकी आँखें अपनेपन का सैलाब लिए
जाने किसके लिए
मगर दिल से वह तन्हा यूँ है
जैसे चाँद तारों के बीच
कुछ लोग जिन्हें कहते हैं
शायर, फ़नकार, कलाकार
जाने कौन सी चाहत है उसके मन में
जो उठती है बवंडर की तरह
अल्फ़ाज आते हैं
अपने आप जाने कहाँ से
जैसे कोई दे रहा हो सदा
वक्त बेवक्त
कलम उसके हाथ में
कि जैसे तलवार हो
धँस जाती है कागज में
और निकलती है तभी
पन्नों को खून में रँगने के बाद
और लोग शाबाशी देते हैं
उसकी आहों पर, वेदना पर, तड़प पर,
जाने क्या सोचकर लोग
महफूज मानते खुद को
इन वेदनाओं से
कि जैसे बच्चा हो माँ की गोद में
वह शख्स तन्हाई बटोरता फिरता है
भीड़ में, बाजार में
वह खुद को ही धोखा देता है
भावनाओं में बहकर, दलीलें सुनाकर
जिससे लोग छडिक उत्साहित होते हैं
फिर भूल जाते हैं
जैसे कुछ हुआ ही न हो
कुछ सुना ही न हो
वह सिर धुनता ही रहता है
नयी कल्पना में
और भूल जाता है वर्तमान
जिसे दुनिया कभी पागल
कभी आवारा और कभी
जबान से बदचलन होने का तमगा लगाती है….
Composed by
Kaushal Shukla