
इन दरख़्तों का न कोई जाति, कोई धर्म है।
दहकता जब सूर्य भीषण, गगन में विकराल होता,
धूप से होकर विकल, कोई पथिक बेहाल होता,
ढाल बनते, छाँव दे शीतल सभी को तृप्त करते,
स्वयं सहते धूप, पानी, शीत पर ना आह भरते।
धर्म का यह मर्म है, कर्तव्य इनका कर्म है,
इन दरख़्तों का न कोई जाति, कोई धर्म है।
ना कभी डरते कदाचित गरजते तूफ़ान से,
हो अँधेरा या उजाला, ये अडिग चट्टान से,
ये रहे फल, फूल, शीतल छाँव सबको बांटते,
और मानव लोभ वस पेड़ों-वनों को काटते।
भूलता एहसान, मानव को नहीं कुछ शर्म है,
इन दरख़्तों का न कोई जाति, कोई धर्म है।
और कटकर भी कहानी प्यार की सबको सुनाते,
हर तरफ लकड़ी की चीजें, घरों की शोभा बढ़ाते,
सोचता जब मैं, स्वयं को तुच्छ पाता हूँ सदा,
‘ले मनुज का जन्म फिर भी क्या किया मैंने बड़ा?’
शख्त हैं दिखते सहज, अंदर से कितने नर्म हैं,
इन दरख़्तों का न कोई जाति, कोई धर्म है।
यह मनुज जो सृष्टि का श्रृंगार है, मैंने सुना है,
छल, कपट, मद, लोभ के कारण मगर छोटा बना है,
आपसी मतभेद की खाई निरंतर बढ़ रही है,
चेतना की यह खुमारी और सिर पर चढ़ रही है।
क्या स्वहित में लीन रहना, यह सही सत्कर्म है?
इन दरख़्तों का न कोई जाति, कोई धर्म है।