आज मन आशक्त है, अभिरुचि हमारी वेदनामय।
एक ये ही बात मेरी आत्मा को खल रही है,
आवरण मुख पर चढ़ाए आज दुनिया चल रही है,
बस स्वहित की कामना, भगवान क्या दुर्दिन फिरा है,
आज जनता लोभ वस इक दूसरे को छल रही है,
क्या करूँ मैं हाय! कैसे बोध हो कुछ प्रेरणामय,
आज मन आशक्त है, अभिरुचि हमारी वेदनामय।
प्रेम का स्तर निरंतर हृदय में अब घट रहा है,
अनगिनत समुदाय में मानव धरा पर बँट रहा है,
धर्मगत या जातिगत खाई निरंतर बढ़ रही है,
फिर मैं कैसे मान लूँ जग से अँधेरा छँट रहा है?
हे विधाता! शुद्ध कर दो, बुद्धि हो कुछ चेतनामय,
आज मन आशक्त है, अभिरुचि हमारी वेदनामय।
विमल-बुद्धि, विवेक के दाता, विवश विद्यार्थी हूँ,
पथ दिखा दो प्रेम का इस विश्व को, शरणार्थी हूँ,
फिर जला दो वह अलख जो अब धरा पर बुझ चुका है,
सत्य की, सत्पथ की जय हो, शांति का मैं प्रार्थी हूँ,
विश्व की अवहेलना से कवि हृदय संवेदनामय,
आज मन आशक्त है, अभिरुचि हमारी वेदनामय।