मुझे यह जिंदगी आवाज़ देती है, बुलाती है,
मैं अक्सर जूझता रहता हूँ और यह आज़माती है।
कोई तो चाहिए मुझको ज़रा समझे, तसल्ली दे,
ये उनकी याद अब बेचैन करती है, सताती है।
अभी रहम-ओ-करम पर पल रही है कुछ दलालों की,
वो लड़की प्यार करने की अजब कीमत चुकाती है।
बहुत देखीं है हमने महफ़िलें पर जाने क्यों ‘कौशल’
तेरे घर की उदासी बस मुझे अब रास आती है।
जरा सी बिजलियाँ चमकीं, बुझा डाले दिए तुमनें,
मगर इन बिजलियों की रौशनी घर में न आती है।
नहीं रखा है इस संदूकची में हार हीरों का,
अगर कुछ है, मेरे महबूब के हाथों की पाती है।
अजब यह कश्मकश का दौर है, अंधी सियासत का,
वही हालात है, सरकार आती है या जाती है।
मैं शायद ना रहूँ कल को, मेरे अल्फ़ाज़ तो होंगे,
यही कुछ सोचकर मेरी कलम यूँ दनदनाती है।