मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है।
मानता हूँ यह बहुत पहले नहीं मैं जान पाया,
कौन सी प्रतिभा छिपी मुझमें, नहीं पहचान पाया,
पर समय अब भी बचा है, अब कलम झकझोरती है,
मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है।
इक पहेली जिंदगी, मुझसे सुलझती ही नहीं थी,
आग थी मुझमें छिपी, पर वह सुलगती ही नहीं थी,
और यह दुनियां भी मेरा साथ अब तो छोड़ती है,
मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है।
अब लिया है ठान, मैं बनकर दिया जलता रहूँगा,
कलम की लौ से दिलों में, रौशनी भरता रहूँगा,
फिर कहेगी ‘वाह’ दुनियां, आज जो मुँह मोड़ती है,
मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है।
हो चुका है सिद्ध यह, मुझमें अनूठी कल्पना है,
मैं सफल हो जाऊँगा, इसकी बहुत संभावना है,
दूर से मंजिल इशारा कर रही, कुछ बोलती है,
मंद गति मेरी हुई पर लेखनी अब दौड़ती है।
सुन्दर।
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धन्यवाद श्रीमान…
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प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
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