दो मुक्तक
1-
कवि की आग कोई घर नहीं, शमां जलाती है।
जो कोई ख्वाब हो सोया, कलम उसको जगाती है,
कोई जब साँस लेता है, हवाएँ चलनें लगतीं हैं,
मैं जब भी आह भरता हूँ, मजा दुनियां उठाती है।
2-
तुम्हारा हाल कुछ वैसा ही है, जैसा हमारा है,
समंदर में यहाँ टूटी हुई कश्ती सहारा है,
जो तुम चप्पू चलाओगे तो मैं पानी निकलूंगा,
चलो मिलजुल के हम कोशिश करें, दिखता किनारा है।