- जो है लेकिन नहीं के बराबर है तो जो नहीं है उसे ढूंढना ही पड़ता है, और कहते हैं ढूंढने से भगवान भी मिल जाता है, सच्चा दोस्त तो फिर भी इंसान है। लेकिन शर्त यह है की सच्चाई अपने भीतर भी हो। दोस्ती भी सिक्के की तरह है जिसमे चित और पट दोनों का होना आवश्यक है नहीं तो यह सिक्का खोटा कहलाता है। सच्चे दोस्त को पहचानना एक हुनर हो सकता है, लेकिन दोस्ती अपने आप में कोई हुनर नहीं है। यह तो अन्तरात्मा की आवाज है जो एक दोस्त की आत्मा में बेआवाज दस्तक देती है। जहाँ कर्तव्य बोध स्वार्थ से ऊपर होता है, वहाँ दोस्ती मरते दम तक न निभे, हो ही नहीं सकता।
