आंदोलित हैं मेरे विचार।
जितने परिपक्व हुए जाते,
चंचलता बढ़ती जाती है,
अखबारों में छपती ख़बरें,
मन को विचलित कर जाती हैं।
जो अत्याचारी है समाज,
हमको उनको समझाना है,
जो नहीं समझनें वाला हो,
उनको कुछ सबक सिखाना है।
यह भी है सत्य की मौन-विवस
रहकर भी क्या पा जाएंगे?
ये भ्रष्टाचारी हम लोगों के
सर पर चढ़ते जाएँगे।
इसलिए कलम की धार तेज
मैं निश-दिन करता रहता हूँ,
चिंगारी बुझने ना पाए,
बारूद जुटाता रहता हूँ।
सहने की भी इक सीमा है,
उसके आगे जो जाएगा,
जिसका भंगुर हो स्वाभिमान,
जग में कायर कहलाएगा।
बहुमंजिली ईमारत दिखती है,
जो आसमान को छूती है,
जिसपर आधारित महल खड़ा,
वह नीवों की मजबूती है।
ऐसे ही मुट्ठी भर मानव,
जो ऊँचाई पर दिखते हैं,
आधार बनाती जनता है,
तब जाकर ऊपर टिकतें हैं।
पर एक बार ऊपर पहुँचे,
तो दंभ स्वयं का भरते हैं,
जिनके बल से वे खड़े हुए,
अन्याय उन्ही पर करते हैं।
इसलिए मेरा सन्देश सुनों,
भूतल पर इनको लाना है,
हमको साथी अब मिलजुल कर,
इनको औकात बताना है।
आंदोलन बहुत जरुरी है,
मेरी बस ये ही एक राय,
निज स्वाभिमान की रक्षा-हित,
अब शेष नहीं कोई उपाय।
आओ हम सब अब मिलजुल कर,
अध्याय लिखें मानवता का,
रक्षित हो यह अपना समाज,
स्थान न हो दानवता का।
आवाज सुनों अपने दिल का,
‘ये भ्रष्टाचार मिटाना है’
लो सपथ अभी इस मिट्टी का,
‘भारत को स्वर्ग बनाना है’
आप की रचना की समिक्षा के लिये शब्द नही मिलते
पर होती लाजवाब है ….समय की मांग है ऐसी रचनायें
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प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
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