शिशु सदृश हृदय मेरा, कोई नहीं दुलारता।
इस शहर को प्रेम की न भूख है, न प्यास है,
जिस किसी को देखिए, बेचैन है, उदास है,
शांति है छिपी हुई, पता नहीं किधर कहाँ?
आदमी मसीन है, बटन की बस तलाश है,
भीड़ से अलग खड़ा, सभी को मैं पुकारता,
शिशु सदृश हृदय मेरा, कोई नहीं दुलारता।
रौशनी है यूँ की चकाचौंध हर नजर हुई,
पर नज़र के सामने अंधेर इस कदर हुई,
लोग भीड़ में खड़े, मसीन देखते रहे,
फोन वाले चित्र वो हंसीन देखते रहे,
क्यों नहीं कोई ख़राब आदतें सुधारता?
शिशु सदृश हृदय मेरा, कोई नहीं दुलारता।
पास में, पड़ोस में, कोई जिए, कोई मरे,
खिड़कियों से झांकते हैं, जुल्म जो कोई करे,
आदमी से आदमी है इस कदर चिढ़ा हुआ,
जैसे सुर्ख रंग देख, साँढ़ हो अड़ा हुआ,
लग रहा नहीं बची, हृदय में अब उदारता,
शिशु सदृश हृदय मेरा, कोई नहीं दुलारता।
मैं हंसीन ख्वाब ले के आ गया शहर मगर,
बात अपनी कह सकूँ, मैं फिर रहा इधर-उधर,
पर किसे है वक्त जो मुझे भी वक्त दे सके,
मुझे सलाह दे सके, मेरी सलाह ले सके,
अब मुझे मेरा हंसीन गांव है पुकारता,
शिशु सदृश हृदय मेरा, कोई नहीं दुलारता।
वाह…
अप्रतिम,
सादर
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प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
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बहुत सुन्दर!!!
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प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
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आप की लेखनी में एक गजब की खूबसूरती है
बहुत अर्थपूर्ण … सोचने पर विवश करती रचना
निराशा भी आशा की किरन जगाती सत्य दिखाती
बेहद खूबसूरत अंदाज … निशब्द कर देता है
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