जिंदगी के कुछ फ़साने, हम सुनाने आ गए,
मजलिसों में हम भी किस्मत आजमाने आ गए।
जब किसी के सामने रोया तो रुसवाई मिली,
इसलिए महफ़िल में हम हँसने-हँसाने आ गए।
मंजिलों का क्या, कहाँ, कब तक मिलेंगी, क्या पता?
हम तो यारों रास्तों को मुंह चिढ़ाने आ गए।
फासले कैसे भी हों, ये फासले मिट जाएंगे,
दिल से दिल तक प्यार का हम पुल बनाने आ गए।
धूप से बेहाल होकर कुछ मुसाफिर थक गए,
फिक्र है हमको, उन्हें पानी पिलानें आ गए।
उड़ने वाले ये परिंदे बाज़ से डरकर छिपे,
हौसला देकर इन्हें, हिम्मत बढ़ाने आ गए।
हो गई हद इस रियाज-ए-जिंदगी के साज की,
इसलिए बिन साज के ही सुर लगाने आ गए।
दोस्ती, चाहत, वफ़ा की बात सब करते मगर,
वक्त पर, मजबूरियाँ अपनी जताने आ गए।
खुद के जख्मों की नहीं परवाह, हम भी सिरफिरे,
दुसरे के घाव पर मरहम लगाने आ गए।
इस कदर मशगूल थे, यह जिंदगानी का सफ़र,
कुछ पता ही ना चला, अपने ठिकाने आ गए।
इस किताब-ए-जिंदगी से जो सबक मिलता रहा,
वह सबक हम आम लोगों को बताने आ गए।
Awsome
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Adarniy aap ki ek rachna padh rahi thi aur padhte padhte….na jane kitni padhti gai
gajab ki lekhan shaili hai aap ki…lajawab
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Protsahan me liye dhanyvad
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