
साहिर साहब का कालजयी गीत ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ हमारे मानस पटल पर गुलाम भारत की एक दर्दनाक तस्वीर खींच देता है, और कवि की ‘आज़ाद भारत की कल्पना’ एक आशा का संचार करते हुए इस गीत को लोगों के हृदय तक पहुंचा देती है। साहिर साहब का ये अंदाज पत्थर-दिल इंसान को भी झकझोरने के लिए पर्याप्त है तो एक कवि इससे अछूता कैसे रह सकता है? इसीलिए मैंने अपने साधारण शब्दों को साहिर साहब के खास अंदाज में प्रस्तुत करने का मन बनाया, अगर मेरे तुच्छ शब्द उनकी प्रेरणा से आपसब के हृदय तक पहुंचें तो खुद को सौभाग्यशाली समझूँगा…
वो सुबह कभी तो आयेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी…
जब सपनों का रथ कीचड़ के
दलदल से बाहर निकलेगा,
आशाओं के घोड़े दौड़ेंगे,
विश्वास का परचम लहरेगा,
जब मेरे गीतों की लय पर
यह दुनियां झूम के गायेगी,
वो सुबह कभी तो आयेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी…
जब रात की काली स्याही से
गीतों को रंगना पड़ता है,
आशाएं मरने लगतीं हैं,
जज़्बात को जीना पड़ता है,
धरती की सारी रंगीनी
जब फीकी पड़ने लगती है,
झूठे-मूठे आस्वासन से
यह दुनियां मुझको ठगती है,
इक दिन ऐसा भी आएगा,
दुनियां मुझको अपनाएगी
वो सुबह कभी तो आयेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी…
माना मैं चलने वाला हूँ,
संग तेरे दौड़ नहीं सकता,
अपने जज़्बाती गीतों को
सिक्कों से तौल नहीं सकता,
मैं न भी रहा, ये गीत फिजाओं
में घुलकर रह जाएंगे,
ये तान तुम्हारे कानों से
जिस दिन भी टकरा जाएंगे,
मुझको ठुकराया था तूने,
‘उस’ गलती पर पछताएगी,
वो सुबह कभी तो आयेगी
वो सुबह कभी तो आएगी…
By
Kaushal Shukla
आशाएं मरने लगतीं हैं,
जज़्बात को जीना पड़ता है।।।
These are the lines I loved most…😊
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thanks
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प्रोत्साहन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
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Khoobsurat
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