कभी सुबह आके जगा गई, कभी धूप में तन जल गया,
कभी शाम ने कहा कान में, चलो घर चलो, दिन ढल गया
मैं अकेला चलता चला गया, मेरी मंजिलों की तलाश में,
इक कारवाँ बनता गया, कुछ लोग हो लिए साथ में,
कुछ यूँ तजुर्बा हुआ मुझे, मेरा फ़लसफ़ा ही बदल गया
कभी शाम ने कहा कान में, चलो घर चलो, दिन ढल गया
किसी अजनबी पे यकीं न कर, मुझे दोस्तों ने सलाह दी,
वे गरीब हैं मेरी तरह, यही सोचकर के पनाह दी,
सभी चल दिए मुझे लूटकर, मैं तो मोम था सो पिघल गया
कभी शाम ने कहा कान में, चलो घर चलो, दिन ढल गया
तेरे पाँव में न चुभे कहीं, मैंने सारे कांटे हटा दिए
तेरे रास्ते रोशन बनें, ये चराग़ मैने जला दिए
पर वक्त ने वो सितम किया, मेरा रास्ता ही बदल गया
कभी शाम ने कहा कान में, चलो घर चलो, दिन ढल गया
पर जो हुआ मेरी बात को अब सुन रहा ये जहान है
मुझे मंजिलों पे यकीन है, मेरे हौसलों में उड़ान है
मेरा दौर-ए-ग़म भी गुज़र गया, मैं सफ़र पे आगे निकल गया
कभी शाम ने कहा कान में, चलो घर चलो, दिन ढल गया
बेहद खूबसूरत।लाज़वाब।👏👏👏👏👏
LikeLike
So beautifully written. Well penned. 🙏🏻
LikeLiked by 1 person
Thanks
LikeLiked by 1 person
दिल के बहुत ही करीब से रचित
LikeLike
बेहतरीन रचना।।
LikeLiked by 1 person
Bahut hi lajwab rachna 👌👌👌
LikeLiked by 1 person
पीठ ठोकी मेरी, और क्या चाहिए,
मंजिलों का मुझे बस पता चाहिए,
खुद-ब-खुद रास्ते पर चला आऊँगा,
आप सा बस कोई रहनुमा चाहिए…
LikeLike
खूबसूरत …
LikeLiked by 1 person
आभार
LikeLike