आज घन घनघोर आए।
आंधियों ने पेड़ को जब जोर से झकझोर डाला,
घोंसले जिनपर बनें उन डालियों को तोड़ डाला,
कुछ परिंदे कोसते हैं भाग्य को, आँसू बहाकर,
किन्तु बुलबुल नवसृजन की कल्पना मन में सजा कर,
झूमकर यूँ गा रही है, चोंच में तिनका दबाए।
आज घन घनघोर आए।
बेचकर पिछली फसल, कुछ कर्ज की पूँजी जुटाकर,
खेत में सब झोंक दी, मेहनत किया था दिल लगाकर,
चिलचिलाती धूप में नवकोपलों के प्राण झुलसे,
देख अध-झुलसी फसल दिल के सभी अरमान झुलसे,
हर्ष के आँसू कृषक की आँख में फिर चमचमाए।
आज घन घनघोर आए।
उड़ गई छत छप्परों की, प्रबल झंझावात था यह,
और बंजारे हुए बेघर, बड़ा आघात था यह,
“भाग्य में है क्या लिखा?”, यह कौन सोचे, कौन जाने,
चल पड़े तिरपाल लेकर आशियाना फिर बनाने,
“क्या हुआ, किसने किया?”, अब कौन अपना सर खपाए।
आज घन घनघोर आए।
है अमावस रात काली और ऊपर घन भयंकर,
प्रिय-मिलन की आस में यह प्रेयसी सोचे निरंतर,
“क्या परीक्षा ले रहा है, दैव! ये आकाश तेरा?
या तड़ित क्रंदन सुनाकर कर रहे उपहास मेरा?
बिजलियां मुझको डराती, खंडहर ढांढस बंधाए।”
आज घन घनघोर आए।
बादलों की फौज अब इंसानियत दिखला रही है,
हौसलों से हार, उल्टे पाँव वापस जा रही है,
रौंद करके कालिमा को, लालिमा स्थान लेगी,
इस पहर बस धैर्य रख, रवि की सवारी आ रही है,
पूर्व में वह भोर का तारा क्षितिज पर टिमटिमाए।
आज घन घनघोर आए।