शहरों को छोड़ गाँव मे आने लगे हैं लोग
नुक्कड़ पे अपनी धाक जमाने लगें हैं लोग।
सुनता हूँ आ गया है, चुनाव का मौसम
अब दावतें मजे से उड़ाने लगें हैं लोग।
परधान की कुर्सी के जो भी तलबगार हैं
अब हर तरह के दाँव लगाने लगे हैं लोग।
बँटने लगे हैं तोहफे, दारू की बोतलें
खुदको यूँ ईमानदार बनाने लगे हैं लोग।
इस गली मे आए जिन्हें अरसा गुजर गया
चौपाल में कुछ वक्त बिताने लगे हैं लोग।
हर बात में बस गालियाँ ज्यादा थीं, बात कम,
शालीनता व्यवहार में लाने लगे हैं लोग।
अपनी हवेलियों से दुत्कारते थे जो
हर शख़्स को अब दोस्त बताने लगे हैं लोग।
चेहरे पे छायी रहती थी हर वक्त मुर्दनी
बिन बात के भी हँसने-हँसाने लगे हैं लोग।
फिसले नहीं ये वोट किसी और की तरफ
अब जाल में मछली को फ़साने लगे हैं लोग।
‘उन तेलियों में किसको एजेंट फिट करें’
अब मेहतरों के घर भी जाने लगें हैं लोग।
कुछ भी हो मगर बात तो है ही ये ख़ुशी की
दुश्मन से भी अब हाथ मिलाने लगे हैं लोग।