जहाँ नहीं अधिकार न जाना।
तुम सीमा के पार न जाना।।
दीपक एक पतंगे लाखों
स्वप्न लिए परिणय की आँखों
कुछ भी हाथ नहीं आता है
मृग-तृष्णा संसार न जाना?
तुम सीमा के पार न जाना।।
सबके मन मे चंचलता है
जिसको जितना भी मिलता है
इच्छाएँ बढ़ती जाती हैं
जीवन का व्यवहार न जाना?
तुम सीमा के पार न जाना।।
सुख में साथ निभाती है यह
दुःख में ऑंख दिखाती है यह
संकट के घिरते ही दुनियाँ
करती तीखे वार न जाना?
तुम सीमा के पार न जाना।।
रिश्तों का कुछ मोल नहीं है
सबसे भारी तोल यही हैं
तज़कर अपने संगी-साथी
करने तुम व्यापार न जाना।
तुम सीमा के पार न जाना।।
खेवनहार छोड़कर पीछे
क्रोधित होकर आँखें मींचे
ये टूटी पतवार लिए तुम
आगे है मझधार न जाना।
तुम सीमा के पार न जाना।।