चंचल पवनों के हूँ अधीन।
मैं बादल मेरा मुख मलीन।।
पवनों से सुनता यहाँ-वहाँ
सूखा किस ओर अकाल कहाँ
जाऊँ तो कैसे जाऊँ मैं
जन-जन के कष्ट मिटाऊँ मैं
उस जगह जहाँ उड़ती है रेत
मैं बरसूँ जाकर खेत-खेत
उन खेतों का कोना-कोना
उगले गेहूँ, मक्का, गन्ना
है परवशता मैं पराधीन।
मैं बादल मेरा मुख मलीन।।
अब मुझे बाढ़ का मिला देश
चहुँदिश हैं विपदाएं विशेष
सब व्यग्र हुए चिल्लाते हैं
मुझपर ही दोष लगाते हैं
आहत हो जाता त्वरित घाव
है मौन हमारा प्रखर भाव
दुःख से लोचन भर आते हैं
फिर झर-झर अंश्रु बहाते हैं
होती आशाएँ छिन्न-भिन्न।
मैं बादल मेरा मुख मलीन।।
कैसे कह दूँ अस्तित्व नहीं
अपने पर ही स्वामित्व नहीं
हर रोज थपेड़े खाना है
झोंकों के पाँव दबाना है
मेरा गौरव भिक्षा मांगे
पवनों की इच्छा के आगे
बस यही बात तड़पाती है
घनघोर निराशा लाती है
जग में कोई मुझसा न दीन।
मैं बादल मेरा मुख मलीन।।
पर एक बात का हर्ष बहुत
मन में मेरे उत्कर्ष बहुत
मैं निर्मल जल बरसाता हूँ
धरती की प्यास बुझाता हूँ
चहुँदिश हरियाली लाऊँ मैं
परहित का धर्म निभाऊँ मैं
तब दुःख से फिर घबराना क्या
पीछे को पाँव हटाना क्या
जब मार्ग नहीं कोई नवीन।
मन ने अपनाया सोच भिन्न।।