सुंदरी! तुम हो सुहागन
पर दुखों का भार कैसा?
माँग का सिंदूर हूँ मैं
बिन मेरे श्रृंगार कैसा?
जब अंधेरे में घिरी थी
प्रेम का दीपक जलाया
चार दिन जब चाँदनी थी
वह दिया तुमने बुझाया
और अब पथभ्रष्ठ होकर
ढूँढती अधिकार कैसा?
माँग का सिंदूर हूँ मैं
बिन मेरे श्रृंगार कैसा?
कल तुम्हारा वन हरा था
झूमतीं आयीं बहारें
आ गया सावन सुहाना
साथ ले रिमझिम फुहारें
आज जब पतझड़ मिला है
सत्य से प्रतिकार कैसा?
माँग का सिंदूर हूँ मैं
बिन मेरे श्रृंगार कैसा?
लाख समझाया समय पर
बात को तुमने न माना
हाथ से फिसला समय अब
व्यर्थ है दर्पण दिखाना
चोंट खाकर पूछती हो
‘नियति का व्यवहार कैसा?’
माँग का सिंदूर हूँ मैं
बिन मेरे श्रृंगार कैसा?
जो तुम्हें प्यारे लगे थे
हो चुके कब के पराए
याद कर लो दिन महीने
साथ मेरे जो बिताए
उठ चुका विश्वास मन से
मैं निभाऊं प्यार कैसा?
माँग का सिंदूर हूँ मैं
बिन मेरे श्रृंगार कैसा?