हाथ में आरी लिए ‘वह’ पास आई।
देख मैं थर्रा उठी फिर तिलमिलाई।।
देखते ही देखते मैं कट गई थी।
आज मैं परिवार से ही छंट गई थी।।
छील कर मेरा बदन चिकना बनाया।
मैं हरी थी, धूप में मुझको सुखाया।।
फिर सुनहरा रंग देकर, रूप प्यारा।
भावना भर आंख में मुझको निहारा।।
आह! पाकर प्रेम अपना दर्द भूली।
कर हृदय मजबूत, हाथों-हाथ झूली।।
दिन, महीने, साल जिस घर में गुजारा।
हर घडी देती रही सबको सहारा।।
और घूमा चक्र कुछ ऐसा समय का।
पालती जो स्वप्न आँखों में विजय का।।
झुर्रियों ने जिंदगी का सार नापा।
आ गया पतझड़ लिए भीषण बुढ़ापा।।
चार बेटे छोड़ माँ को जा चुके हैं।
या पतन का रास्ता अपना चुके हैं।।
कह रही ‘वह’ आज रिश्तों को ‘पहेली’।
देख! घर में एक बूढी माँ अकेली।।
भार लेकर उस अभागन की खड़ी हूँ।
मैं छड़ी हूँ।।