जब-जब अंतर अकुलाता है भावों की धार बहाता है मैं निज छंदों से सींच-सींच स्वप्नों की फसल उगाता हूँ। कविताएँ लिखता जाता हूँ।।
कविताएँ लिखता जाता हूँ – Poets Are Prophets

जब-जब अंतर अकुलाता है भावों की धार बहाता है मैं निज छंदों से सींच-सींच स्वप्नों की फसल उगाता हूँ। कविताएँ लिखता जाता हूँ।।
गिरिराज हिमालय नहीं रहा गंगा की धार बहे कैसे? छल-दंभ-द्वेष से घिरा हृदय भावों की धार सहे कैसे? ना कोई प्रतिकार बचा है ना कोई प्रतिबंध हमारा शब्दकोष खाली खाली है मूक खड़ा है छंद हमारा।
यूँ सुराही दिखाने से क्या फायदा प्यास मेरी बढ़ाने से क्या फायदा तेरी बोतल कुछ भी नशा ही नहीं जाम पीने-पिलाने से क्या फायदा।
घर ही में बीवियों से खुराफ़ात सीखिए, कैसे करेंगे बॉस को बर्दास्त, सीखिए, बढ़ता है लॉक डाउन जो तो बढ़ने दीजिए, कूकिंग व राजनीति एक साथ सीखिए
कुछ परिंदे कोसते हैं भाग्य को, आँसू बहाकर, किन्तु बुलबुल नवसृजन की कल्पना मन में सजा कर, झूमकर यूँ गा रही है, चोंच में तिनका दबाए। आज घन घनघोर आए।
होली में बौराय के डिम्पल भौजी करें ठिठोली, देख अकेले जोगी जी ने रंग दी घघरा-चोली, रंग दी घघरा-चोली भगवा रंग अब मुझको भाय, अबकी बारी टिकट दिला दो, कुछ तो करो उपाय
वादे झूठे, कसमें झूठीं, झूठा प्रेम निभाया फिर भी न जानें, क्यों नहीं माने, ऐसा दिल भरमाया दिल की बातें, दिल ही जाने, कौन इसे समझाए जीवन-पथ पर, धीरे-धीरे, राही पाँव बढ़ाए
अपने घर में ही नया स्वर्ग बना रखा है मैंने मां-बाप को मंदिर में बिठा रखा है