थी कमान पर लक्ष्यहीन थी दुविधा से आँखे मलीन थीं तरकस में बेकार पड़े इन तीरों को संधान मिला है। मुझको अद्भुत ज्ञान मिला है।।
मुझको अद्भुत ज्ञान मिला है – गीत

थी कमान पर लक्ष्यहीन थी दुविधा से आँखे मलीन थीं तरकस में बेकार पड़े इन तीरों को संधान मिला है। मुझको अद्भुत ज्ञान मिला है।।
जहन्नुम से ख़बर उड़ने लगी है वहाँ पर भीड़ अब बढ़ने लगी है उतरने की कोई सूरत नही है ख़ुमारी इस कदर चढ़ने लगी है
कभी सुबह आके जगा गई, कभी धूप में तन जल गया, कभी शाम ने कहा कान में, चलो घर चलो, दिन ढल गया
दिलों की खाईयाँ पटने लगी हैं बहुत थी दूरियाँ, घटने लगी हैं कही तुमने दो बातें साफ दिल से हमारी उलझने मिटने लगी हैं
कोई भी न जानें मुकद्दर में क्या है यहाँ आदमी इक खिलौना बना है नहीं मंजिलों की खबर है किसी को, ये राहें दिखाती हैं आँखे सभी को मगर फिर भी इंसान रुकता कहाँ है भले कल की बातें न उसको पता है कहीं भागते ही न बीते जवानी यही फ़लसफ़ा है, यही जिंदगानी
मैं हंसीन ख्वाब ले के आ गया शहर मगर, बात अपनी कह सकूँ, मैं फिर रहा इधर-उधर, पर किसे है वक्त जो मुझे भी वक्त दे सके, मुझे सलाह दे सके, मेरी सलाह ले सके, अब मुझे मेरा हंसीन गांव है पुकारता, शिशु सदृश हृदय मेरा, कोई नहीं दुलारता।
मानव हो तो मानवता का कुछ ज्ञान जुटा लो जीवन में, जांचो-परखो, अनुमान लगा लो, कितना सुख इस बंधन में, अधिकार तुम्हारे जायज पर, कर्तव्यों से मत टलना सीखो, आसमान पर उड़ने वाले, धरती पर भी चलना सीखो।